Sunday, October 23, 2011

हम पुछैत छी- मुन्नाजीक अनलकान्त सँ गप्प-सप्प।

साभार विदेह (http://www.videha.co.in/)


मुन्नाजी: अहाँक सृजनरथ कथायात्रासँ प्रारम्भ भेल छल, प्रारम्भसँ एखन धरि अपन कथायात्राकेँ कोन दृष्टिये देखै छी। ऐ बीच कथा आ कथानकमे कोन बदलाव देखबामे आएल?
अनलकान्त: अपन कथायात्राक बारे मे हम पहिनहि कहलहुँ जे स्‍वयं किछु नै कहब। एकर सही मूल्‍यांकन दोसर लेखक, पाठक वा आलोचक कऽ सकै छथि। ओना मैथिली मे आलोचक तँ छथिये नै तहन सहृदय पाठक आ दोसर लेखक एकर निर्णायक भऽ सकै छथि। ओना मैथिली कथामे बदलावक गप्प कहबै तँ समएक जे दवाब छै से तँ अबै छै मुदा जतेक एबाक चाही से हमरा मैथिली साहित्यमे नै देखबा मे अबैए।

मुन्नाजी: अहाँ अपनाकेँ साम्यवादी रूपेँ स्थापित करबाक प्रयास केलौं। सातम-आठम दशकमे उठल साम्यवादी विचारधाराक हो-हल्लाक बाद एहेन कोनो विचारधारा मैथिली मध्य बनि सकल?
अनलकान्त: नै हमरा ई गलत लगैए जे सातम आकि आठम दशकमे हो हल्ला भेल। बाबा नागार्जुन जखन रचनात्मक शुरुआत केलनि आजादीक पूर्वे, ओइ समयक जे हुनकर लेख देखबनि ओ जे राजघरानाक विरुद्ध प्रश्‍न उठेलनि, से की छल ? ओ किसान आन्दोलन, कम्यूनिस्ट आन्दोलनक समर्थक ताहि जमाना सं छलाह। जहिया मार्क्सवादी विचार नै छलै तहिया न्‍यायक प्रश्‍न नै छलै की ? हँ, सातम-आठम दशकमे नक्सलबाड़ी आन्दोलनक बाद मैथिलीमे अग्नि पीढ़ी आगू भऽ एलै आ तहिया  जे सामाजिक दवाब छलै- ओइमे रामलोचन ठाकुर, अग्निपुष्प, कुणाल, नरेन्‍द्र आदि हस्‍तक्षेप कयलनि। हँ ओ एहेन दवाब छलै जाइमे जे ओइ धाराक समर्थक नहियो रहयवला अनेक दृष्टिसंपन्‍न लेखक एहि पीढि़क संग समानधर्मे टा नै, सहमना रूप मे सेहो सोझा अयलाह। आइ ओहि धारा मे कुमार पवन, सारंग कुमार, विद्यानंद झा, कामिनी आदि सन अनेक युवा रचनाकार भेटताह।

मुन्नाजी: अहाँ मैथिली-हिन्दी मध्य समान रूपेँ सक्रिय छी, दुनू मध्य की समानता-भिन्नता अनुभव करै छी?
अनलकान्त: एकटा हमर मातृभाषा छी, दोसर हमर रोजी-रोटीक भाषा। हमरा दुनू मे कोनो द्वैध नै बुझाइ अछि।

मुन्नाजी: अहाँ प्रकाशकीय गतिविधि (प्रकाशन आ वितरण)मे सेहो सक्रिय छी। तँ कहू मैथिलीमे श्रेष्ठ रचनाक की स्थिति अछि, पाठकक भेल वृद्धि कते महत्व रखैत अछि?
अनलकान्त: पाठकक मैथिलीमे अभाव भेलैए। १९९९-२००० मे जतेक पत्रिका-किताब बिका जाइत छलै आब से स्थिति नै छै।

मुन्नाजी: अहाँ अपना जनतब कहू जे मैथिली पत्रकारिता वा प्रकाशन कतऽ अछि, ई आर्थिक लाभमे जा सकैए?
अनलकान्त: निश्चित रूपसँ आर्थिक लाभ भऽ सकै छै, ओइ लेल आवश्यक छै पैघ प्रकाशन संस्थाक, जतऽ पर्याप्‍त पूजी संग व्‍यावसायिक सूझ-बूझ सेहो होइ। हमरा सभकेँ ओते संसाधन नै अछि। हमरा सभकेँ आर्थिक लाभ नै भेल, मुदा घाटामे सेहो नै रहलौं। ओइ रूप मे हम बजारकेँ गलत नै कहै छिऐ। आब हम एक बेर कतौसँ विज्ञापन आनि लेलौं तँ हमरा लाभ भऽ गेल, मुदा तकरा एहि व्‍यवसायक स्‍थायी भाव तं नै कहबै ? हमसभ किछु खास नै केलहुं, एकदम छोट प्रयास अछि हमरासभक...

मुन्नाजी: अहाँ अंतिकासँ किछु रचनाकारकेँ बेरा कऽ रखैत रहलौंहेँ, तकर की कारण, विचारधाराक अभाव की रचनाक स्तरक अभाव?
अनलकान्त: हमरा नै कोनो नाम मोन पड़ैत अछि, जिनका हमसभ बेराकऽ रखने होइ। अंतिका मे हमरासभ जते लोककेँ छपने छी तकर नाम नुकायल नै छै। तकर अलाबे के बारल छथि तकर नाम अहीं कहि सकैत छी...

मुन्नाजी: अपन समतुरिया रचनाकारकेँ कतऽ राखऽ चाहब, ओइ भीड़ मध्य अपनाकेँ कतऽ पबै छी?
अनलकान्त: हम अपन समकक्ष सभ रचनाकार केँ अपना सँ आगू मानै छी। ओइ भीड़ मे हम सब सं पाछू छी।
मुन्नाजी: मैथिली साहित्य बभनौटी (ब्राह्मणवादक) शिकार रहल अछि। मुदा नव सदीमे सक्रिय गएर ब्राह्मण रचनाकारक प्रवेशकेँ अहाँ कोन तरहेँ देखै छिऐ?
अनलकान्त: ब्राह्मणेत्तर जे छथि, हुनका लग भोगल पीड़ा छनि तें हुनके स्‍वर सभसँ विश्‍वसनीय हैत।
मुन्नाजी: अपन अमूल्य समए दऽ उतारा देबा लेल बहुत-बहुत धन्यवाद।

अनलकान्त: अहूँ के धन्‍यवाद।

No comments:

Post a Comment