Sunday, March 22, 2009

उत्थान-पतन - जगदीश प्रसाद मण्डल




एकटा शिष्य गुरुसँ पुछलक- “मनुख शक्तिक भंडार छी फेर ओ किएक डुमैत-गिड़ैत अछि?”
शिष्यक प्रश्न सुनि गुरु कनी-काल सोचि‍ अपन कमंडल पानिमे फेक‍ देलखिन। कमंडल पानि‍मे तैरए लगल। कनीकालक बाद कमंडल निकालि पेनमे भूर कऽ देलखिन। भूर केलाक बाद फेर कमंडलकेँ पानिमे फेकलखिन। कमंडल डूमि गेल। डुमल कमंडलकेँ देखबैत गुरु कहलखिन- “जहिना छेद भेल कमंडल पानिमे डूमि गेल मुदा बिनु छेद भेल कमंडल नै डुमल तहिना मनुखोक अछि। जइ मनुखमे संयम छै ओ ऐ संसार रूपी पोखरिमे नै डुमैत अछि मुदा जे असंयमी अछि ओ ओइ‍ छेद भेल कमंडल जकाँ डूमि‍ जाइत अछि। गाएकेँ अगर चालनिमे दुहल जाए तँ दूध धरतीपर गिरत मुदा जँ सौंस बर्तनमे दुहल जाएत तँ बर्तनमे रहत। तहिना इन्द्रिय शक्ति जँ मानसिक शक्तिकेँ कुमार्ग दिस लऽ जाएत तँ ओ ओही चालनि जकाँ भऽ जाएत। मुदा जँ सुमार्ग दिस बढ़त तँ ओ जरूर शक्तिशाली मनुख बनत।”

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