Monday, February 23, 2009

कामिनी - जगदीश प्रसाद मण्डल



  अन्हरगरे भैयाकाका लोटा नेनहि मैदान दिशिसँ आबि रस्ते परसँ बोली देलखिन.......।

  हमहूँ मैट्रिकक परीक्षा दैले जाइक ओरियान करैत रही। ओना हमर नीन बड़ मोट अछि मुदा खाइये बेरिमे माएकेँ कहि देने रहिऐ जे कने तड़गरे उठा दिहेँ नञि तऽ गाड़ी छुटि जाएत। किऐक तँ साढ़े पाँचे बजे गाड़ीक समए अछि। आध घंटा स्टेशन जाइयोमे लगैत अछि। तेँ, पौने पाँच बजे घरसँ बिदा होएब तखने गाड़ी पकड़ाएत। जँ ई गाड़ी छुटि जाएत तँ भरि दिन रस्तेमे रहब। निरमलीसँ जयनगरक लेल एक्केटा डायरेक्ट गाड़ी अछि। नहि तँ सभ गाड़ी सकरीमे बदलए पड़ैत अछि। तहूमे बसबला सभ तेहेन चालाकी केने अछि जे एक्कोटा गाड़ीक मेलि नहि रहए देने अछि। तीनि-चारि घंटा सकरीक प्लेटफार्मपर बैसू तखन दरभंगा दिशिसँ गाड़ी आओत। तहूमे तेहेन लोक कोंचल रहत जे चढ़बो मुश्किल। तेँ ई गाड़ी पकड़़ब जरुरी अछि। ततबे नहि, अपन स्कूलक विद्यार्थियो सभ यएह गाड़ी पकड़त। अनभुआर इलाका तेँ असगर-दुसगर जाएबो ठीक नहि। सुनै छी जे ओहि इलाकामे उचक्को बेसी अछि। जँ कहीं कोनो समान उड़ौलक तँ आरो पहपटिमे पड़ि जाएब। भैया कक्काक बोली सुनि चिन्हैमे देरी नञि भेल। किऐक तँ हुनकर अबाज तेहेन मेही छनि जे आन ककरोक बोलीसँ नहि मिलैत। बोली अकानि हम दरबज्जेक कोठरीसँ कहलियनि- ‘कक्का, आउ-आउ। हमहूँ जगले छी। पँचबजिया गाड़ी पकड़ैक अछि तेँ समान सभ सरिअबै छी।’
  रस्ता परसँ ससरि काका दरवज्जाक आगूमे आबि कहलनि- ‘कने हाथ मटिया लै छी। तखन निचेनसँ बैसबो करब आ गप्पो करब।’
  कहि पूब मुँहे कल दिशि बढ़लाह। हमहूँ हाँइ-हाँइ समान सरिअबए लगलौं। कलपर सँ आबि काका ओसारक चौकी तरमे लोटा रखि अपने चौकीपर बैसलाह। चौकीपर बैसितहि गोलगोलाक जेबीसँ बिलेती तमाकुलक पात निकालि तोड़ैत बजलाह- ‘भाय सहाएब कहाँ छथुन?’
  ‘ओ काल्हिये बेरु पहर नेवानी गेला,  से अखन धरि कहाँ ऐलाहहेँ।’
 हमर बात सुनि, भैयाकाका चुनौटीसँ चून निकालि तरहत्थीपर लैत बजलाह- ‘अखन जाइ छी,  हएत तँ ओइ बेरिमे फेरि आएब।’
  काकाक वापस होएब हमरा नीक नहि लागल। किऐक तँ लगले ऐलाह आ चोट्टे घुरि जेताह। तेँ बैसै दुआरे बजलहुँ- ‘अहाँ तँ कक्का गाममे दगबिज्जो कऽ देलिऐक। एत्ते खर्च कऽ कऽ कियो कन्यादान नहि केने छलाह। अहाँ रेकर्ड बना लेलिऐक।’
  अपन प्रशंसा सुनि भैयाकाका मुस्कुराइत बजलाह- ‘ बौआ, युग बदलि रहल अछि। तेँ  सोचलहुँ जे नीक पढ़ल-लिखल वरक संग बेटीक विआह करब। हमरो बेटी तँ बड़ पढ़ल-लिखल नहिये अछि। मुदा रामायण,  महाभारत तँ धुरझार पढ़ि लैत अछि। चिट्ठियो-पुरजी लिखिये-पढ़ि लैत अछि। घर-आश्रम जोकर तँ ओहो पढ़नहि अछि। ओकरा की कोनो नोकरी-चाकरी करैक छैक, जे स्कूल-कओलेजक सर्टिफिकेट चाहिऐक। अपना सभ गिरहस्त परिवारमे छी तेँ बेटीकेँ बेसी पढ़ाएब नीक नहि।’
  ‘किए?’
  अपना सबहक परिवारमे गोंत-गोबरसँ लऽ कऽ थाल-कादो धरिक काज अछि। ओ तँ घरेक लोक करत। तइमे देखबहक जे जे स्त्रीगण पढ़ल-लिखल अछि ओ ओहि काजक भीड़ि नहि जाए चाहतह। आब तोंही कहह जे तखन गिरहस्ती चलतै कोना?’
  काकाक तर्कक जबाब हमरा नहि फुड़ल। मुदा चुप्पो रहब उचित नहि बुझि कहलिएनि- ‘जखन युग बदलि रहल अछि तखन तँ सभकेँ शिक्षित होएब जरुरी अछि की ने?’ सभ पढ़त सभ नोकरी करत। नीक तलब उठाओत। जहिसँ घरक उन्नति आरो तेजीसँ होएत। तहूमे महिला आरक्षण भेने नोकरियोमे बेसी दिक्कत नहिये होएत।’
  भैयाकाका- ‘कहलह तँ बड़ सुन्दर बात  मुदा एकटा बात कहह जे दुनू गोटे, मर्द-औरत, एक्के इस्कूल वा ऑफिसमे नोकरी करत तखन ने एकठाम डेरा रखि परिवार चलौत। मुदा जखन पुरुष दोसर राज्य वा दोसर जिला वा दस कोस हटि कऽ नोकरी करत तखन कोना चलतै। परिवार तँ पुरुष-नारीक योगसँ चलैत अछि की ने? परिवारमे अनेको ऐहेन काज अछि जे दुनूक मेलसँ होएत। मनुष्य तँ गाछ-बिरीछ नहि ने छी जे फलक आँठी कतौ फेकि देबै तँ गाछ जनमि जाएत। आब तँ तोहूँ कोनो बच्चा नहिये छह जे नै बुझबहक। मनुष्यक बच्चा नअ मास -२७०- दिन माइक पेटमे रहैत अछि। चारि-पाँच मासक उपरान्त माइक देहमे बच्चाक चलैत कते रंगक रोग-व्याधिक प्रवेश भऽ जाइत छैक। किऐक तँ माइक संग-संग बच्चोक विकासक लेल अनुकूल भोजन, आराम आ सेवाक आवश्यकता होइत। तखन माए असकरे की करत? नोकरी करत आ कि पालन करत? एहि लेल तँ दोसरेक मदतिक जरुरत होइत।’
  ‘आन-आन देशमे तँ मर्द-औरत सभ नोकरी करैत अछि आ ठाठसँ जिनगी बितबैत अछि।’
  भैयाकाका- ‘आन देशक माने ई बुझै छहक जे, जत्ते दोसर देश अछि सबहक रीति-नीति जीवन शैली एक्के रंग छैक? नहि। एकदम नहि। किछु देशक एक रंगाहो अछि। मुदा फराक-फराक सेहो अछि। हँ, किछु ऐहन अछि जहिठाम मनुष्य सार्वजनिक सम्पति बुझल जाइत छैक। ओहि देशक व्यवस्थो दोसर रंगक अछि। सभ तरहक सुविधा सबहक लेल अछि। तहि ठामक लेल ठीक अछि। मुदा अपना ऐठाम अपना देशमे तँ से नहि अछि। तेँ  एहिठामक लेल ओते नीक नहि अछि जते अधलाह।’
  अपनाकेँ निरुत्तर होइत देखि बातकेँ विराम दैक विचार मनमे उठए लगल। तहि बीच आंगनसँ माए आबि गेलीह। माएकेँ देखितहि हम अपन समान सरिअबै कोठरी दिशि बढ़ि गेलहुँ।
  भैयाकाकाकेँ देखि माए कहलकनि- ‘बौआ अहाँ तँ गाममे सभकेँ उन्नैस कऽ देलिऐ। आइ धरि  गाममे  बेटी विआहमे एते खर्च कियो ने केने छलाह।’
  अपन बहादुरी सुनि मुस्कुराइत भैयाकाका कहलखिन- ‘भौजी कामिनीकेँ असिरवाद दियौ जे नीक जेकाँ सासुर बसए।’
  माए- ‘भगवान हमरो औरुदा ओकरे देथुन जे हँसी-खुशीसँ परिवार बनाबए। पाहुन-परक तँ सभ चलि गेल हेताह?’
  भैयाकाका- ‘हँ भौजी। काल्हि सत्यनारायण भगवानक पूजा कऽ हमहूँ निचेन भऽ गेलहुँ। पाहुनमे-पाहुन आब एक्केटा सरहोजि टा रहि गेल अछि। ओहो जाइ ले छड़पटाइए। मुदा ओकरा पाँच दिन आरो रखए चाहै छी।’
  माए- ‘जहिना एकटा बेटीक विआहक काजकेँ खेलौना जेकाँ गुड़केलहुँ, तहिना दोसर ई सरहोजिकेँ आब गुड़कबैत रहू।’
  सरहोजि दिशि इशारा होइत देखि कक्का बुझि गेलखिन। मकैक लावा जेकाँ बत्तीसो दाँत छिटकबैत बजलाह- ‘धरमागती पूछी तँ भौजी एते भारी काज- जे ने खाइक पलखति होइत छल आ ने पानि पीबैक। तीनि राति एक्को बेरि आँखि नहि मुनलौं। मुदा सरहोजिकेँ धन्यवाद दिअ जे घिरनी जेकाँ दिन-राति नचैत रहलि। ओते फ्रीसानी रहए तइओ कखनो मुँह मलिन नहि। सदिखन मुहसँ लबे छिटकैत। तेँ सोचै छी जे पाँच दिन पहुनाइ करा दिऐ।’
 माए- ‘बच्चा कइए टा छैक?’
  ‘एक्कोटा नहि। तीनिये सालसँ सासुर बसैए। उमेरो बीस-बाइस बर्खसँ बेसी नहिये हेतै।’
  ‘आब तँ लोककेँ बिआहे साल बच्चा होइ छै आ अहाँ कहै छी जे तीन सालसँ सासुर बसए अए।’
  ‘ऐँह, हमरा तँ अपने पान सालक बाद भेल आ अहाँ तीनिये सालमे हदिआइ छी। अच्छा एकटा बात हमहीं पूछै छी जे भैया ने हमरासँ साल भरि जेठ छथि मुदा अहाँ तँ साल छौ मास छोटे होएब। अहों कोन-कोन गहबर आ ओझा-गुनी लग गेल रही।’
  अपनाकेँ हारैत देखि बात बदलैत माए बाजलि- ‘सभ मिला कऽ कते खर्च भेल ?’
  भैयाकाका- ‘धरमागती पूछी तँ भौजी हमहूँ कंजुसाइ केलिऐ। मुदा तैयो पाँच लाखसँ उपरे खर्च भेल। तीन लाख तँ नगदे गनि कऽ देने छलिऐक। तइपर सँ डेढ़ लाखक समान, गहना,  बरतन,  लकड़ीक समान,  कपड़ा देलिऐ। पचास हजारसँ उपरे बरिआतीक सुआगतमे लागल। तइपरसँ झूठ-फूसमे सेहो खर्च भेल।’
  ‘एते खर्च केलिऐ तखन किए कहै छिऐ जे हमहूँ कंजुसाइ केलिऐ?’
  ‘देखिओ भौजी, हमरा दस बीघा खेत अछि। तेकर बादो कते रंगक सम्पति अछि। गाछ-बाँस,  घर-दुआर, माल-जाल। अइ सभकेँ छोड़ि दै छी। खाली खेतेक हिसाब करै छी। अपना गाममे दस हजार रुपैये कट्ठासँ लऽ कऽ साठि हजार रुपैये कट्ठा जमीन अछि। ओना सहरगंजा जोड़बै तँ पेंतीस हजार रुपैये कट्ठा भेल। मुदा हम्मर एक्कोटा खेत ओहन नहि अछि जेकर दाम चालीस हजार रुपैये कट्ठासँ कम अछि। बेसियोक अछि। मुदा चालिसे हजारक हिसाबसँ जोड़ै छी तँ आठ लाख रुपैये बीघा भेल। दस बीघाक दाम अस्सी लाख भेल। तीनि भाए-बहीन अछि। हमरा लिये तँ जेहने बेटा तेहने बेटी। अनका जेकाँ तँ मनमे दुजा-भाव नै अछि। आब अहीं कहू जे कोन बेसी खर्च केलिऐ।’
  बातक गंभीरताकेँ अंकैत माए बाजलि- ‘अहाँ विचारे बेटीक विआहमे कते खर्च बाप कऽ करैक चाहिऐक?’
  भैयाकाका- ‘देखियौ भौजी,  जे बात अहाँ पुछलहुँ ओकर जबाब सोझ-साझ नहि अछि। किऐक तँ जते रंगक लोक आ परिवार अछि तते रंगक जिनगी छैक। मुदा अनका जे होउ,  हमरा मनमे ई अछि जे बेटा-बेटी एक-रंग जिनगी जीबए। मुदा समस्यो गंभीर अछि। धाँइ दे किछु कहि देने नहि हेतै।’
  ‘एते लोक सोचै छै?’
  ‘से जँ नहि सोचै छै तेँ ने एना होइ छै। जँ अपने कोनो बात नहि बुझिऐ तँ दोसरसँ पूछैयोमे नहि हिचकिचेबाक चाही।’
  कामिनीक विआह लालाबाबू संग भेल। जेहने हिरिष्ट पुष्ट शरीर कामिनीक तेहने लालबाबूक। दुनूक रंगमे कने अन्तर। जहिठाम लालबाबू लाल गोर तहि ठाम कामिनी पिंडश्याम। ने अधिक कारी आ ने अधिक गोर, जाहिसँ दाइ-माएक अनुमान जे किछु दिनक उपरान्त दुनूक रंग मिलि जाएत, अर्थात् एकरंग भऽ जाएत।
  विआहक तीन मास बाद लालबाबूक बहाली कओलेजक डिमोंसट्रेटरक पदपर भेल। नोकरी पबितहि सासुरेक दहेजबला रुपैयासँ दरभंगामे डेढ़कट्ठा जमीन कीनि घर बना लेलक। गामसँ शहर दिशि बढ़ल। जाहिसँ जिनगीमे बदलाब हुअए लगल। एक दिशि बजारु आधुनिकता जोर पकड़ए लगलै तँ दोसर दिशि ग्रामीण जिनगीक रुप टूटए लगलै। रंग-विरंगक भोग-विलाशक वस्तुसँ घर सजबए लगल। पाइक अभावे ने बुझि पड़ैत। किऐक तँ भैयारीमे असकरे। तेँ गामक सभ सम्पति बेचि-बेचि आनए आ मौज करए। मिथिला कन्या कामिनी। तेँ पतिक काजमे हस्तक्षेप नहि करै चाहैत। पति-पत्नीक बीच ओहने संबंध जेहेन अधिकांशक।
शिक्षाक स्तर खसल। अजाति सभ सरस्वतीक मंदिरमे प्रवेश केलक। जहिठाम प्राइवेट टयूशन पढ़ाएब अधलाह काज बुझल जाइत छल, से प्रतिष्ठित भऽ गेल। परिणाम भेल जे टयूशनकेँ अधलाह आ पाप बुझनिहार शिक्षक स्वयं मूर्खक प्रतीक बनि गेलाह। अवसरक लाभ अज्ञानीकेँ बेसी भेलै। पाइ-कौड़ीबला लालबाबू कोना नै अवसरक लाभ उठबैत। बीसे हजारमे एम.एस.सी. फिजिक्सक सर्टिफिकेट कीनि लेलक। विश्वविद्यालयोमे कानून पास केने जे नवशिक्षकक बहालीमे कओलेजक डिमोसट्रेटरकेँ प्राथमिकता देल जाएत। लालोबाबू फिजिक्सक प्रोफेसर बनि गेल। हाइ स्कूल वा सरकारी ऑफिस जेकाँ प्रोफेसरकेँ ड्यूटियो नहि। सालमे कओलेज छह मास बन्ने रहैत बाकी समएमे कहियो ड्यूटी होएत कहियो नहि होएत। तइपर सँ अपन सी.एल. आ मेडिकल पछुआइले।
पाँच बर्ख बीतैत-बीतैत लालबाबूक माए-बाप मरि गेल। मरने लाभे। घरारी धरि बेचि कऽ बैंकमे लालबाबू जमा कऽ लेलक। मुदा एकटा बात जरुर केलक, ओ ई जे घरारीक रुपैआ सँ पाँचटा आलमारी आ जते किताबसँ आलमारी भरत, ओते किताब जरुर कीनि लेलक। एक तँ पाइक गर्मी दोसर किताबक गर्मी, अध्ययनक गर्मी नहि देखलाहा गर्मी- सँ लालबाबूक मति ऐहेन बदलि गेल जेहेन ठंढ़ा पानि आ ठंढ़ा दूधसँ चाह बनैत। अखन धरि छह बर्खमे दूटा सन्तान सेहो भेल। अपन दुनियाँक बीच कामिनी नचैत तेँ लालबाबूक जिनगी कोना देखैत? दोसर उचितो नहि किऐक तँ हर युवा आदमीकेँ अपन जिनगीक बाटपर नजरि राखक चाहिऐक।
  साँझू पहर लालबाबू होटलसँ सीधे आबि कोठरीमे कपड़ा बदलए लगल। देहक सभ कपड़ा उताड़ि लेलक। उपरसँ लऽ कऽ भीतर धरि शरीरमे आगिक ताव जेकाँ लहकैत। पंखाक बटन दबलक। मुदा भगवानक मूर्तिक आगूक जे कोठरीक दिवारक खोलियामे रखने छल, से बौल जरौने बिना अपन कोठरीक बौल कोना जरबैत। तेँ पहिने ओ बौल जरौलक। मुदा मूर्तिक आगू बौल जरौला बाद अपन कोठरीक बौल जरौनाइ बिसरि गेल। पियाससँ कंठ सुखैत। मुदा टंकीपर जाइक डेगे ने उठैत। लटपटाइत। कहुनाकेँ कुरसीपर बैसल आकि टेबुल तरक जगपर नजरि पड़लै। दिनुके पानि। जग उठा पानि पीलक। जग रखि कुरसीपर अंगोठि मने-मन अकासक चिड़ै हियासय लगल। उड़ैत मृगनयनीपर नजरि गेलै। कओलेजक छात्रा मृगनयनीकेँ किछु देर देखि पत्नी कामिनीपर नजरि देलक। मनमे उठलै दू बेटीक जिनगी। फेर मन देखलकैक चहकैत मृगनयनी। निर्णय केलक जे अपना घर मृगनयनीकेँ जरुर आनब। रसे-रसे मन शान्त हुअए लगलै।
  दोसर दिन कोर्ट होइत लालबाबू मृगनयनीक संग घर पहुँचल। मृगनयनीकेँ देखि कामिनी घबड़ाएल नहि। मन पड़लै दादी मुँहक सुनल खिस्सा। तेँ पुरुखक लेल दूटा पत्नी होएब कोनो अधलाह नहि। अपन दुनियाँमे मस्त। काजक कोनो घटती नहि, कनी-मनी बढ़तिये। तेँ जुआनीक आनन्द कामिनीमे।
  विआहक आठ बर्ख वाद जे लालबाबू डिमोसट्रेटरसँ प्रोफेसर बनल, ओ आइ स्त्रीक खिलौना बनि गेल। ऐहन-ऐहन लोकक कते आशा। आठ बजे साँझ। बजारसँ दुनू परानी मृगनयनी आ लालबाबू मोटर साइकिलसँ उतड़ि कोठरीमे पहुँचल। अगल-बगलक कुरसीपर बैसि ब्राण्डीक बोतल निकालि टेबुलपर रखलक। मुदा टेबुल कहऽ चाहै जे ‘भाय सोझा-सोझी बेइज्जत नञि करह, हम किताब रखै बला छी, नञि कि बोतल। मुदा बेचाराक विचार, मिथिलाक कन्या जेकाँ, तेँ सभ कुछ सहि लैत। जहिना राज-दरबारमे  मिथिलाक राजा जनककेँ जननिहार पंडित सहि लैत।
  असेरी गिलाससँ दुनू बेकती एक-एक गिलास ब्राण्डी चढ़ा अपन दुनियाँमे विचरण करए लगल। प्रश्न उठल कामिनीक।
मृगनयनी- ‘हम्मर एकटा विचार सुनू।’
  ‘बाजू।’
  ‘पत्नीक सभ सुख जँ एक पत्नीसँ पूर्ति हुअए तखन दोसर रखबाक की जरुरी?’
  ‘कोनो नहि।’
  ‘तखन सौतीन कामिनीकेँ रखि की फएदा?
  कने गुम्म भऽ लालबाबू सोचै लगल। मन पड़लै कामिनी। निस्सकलंक,  स्वच्छ,  कोमल-कोमल पंखुड़ी गंध युक्त कामिनी।
  दोहरा कऽ मृगनयनी बाजलि- ‘बस, यएह पुरुखक कलेजा छी। कामिनीकेँ रस्तासँ हटाएब हम्मर जिम्मा भेल।’
  मृगनयनीक रुप देखि विधातो अपन गल्तीपर सोचितथि। जे नारी-पुरुषक बीच जेहेन थलथलाह पुल बनोलिऐ तेहेन नारी-नारीक बीच किअए ने बनोलिऐ। मृगनयनी आ लालबाबूक दुनू गोटेक बीचक बात कामिनीओ सुनैत। जहिना मृगनयनीक करेजमे कामिनीक प्रति आगि धधकैत तहिना मृगनयनियोक प्रति कामिनीक करेजमे आगि पजरि गेल। मुदा अपनाकेँ सम्हारैत ओ घरसँ निकलि जाएब नीक बुझलक। किऐक तँ तीन जिनगीक प्रश्न आगूमे आबि ठाढ़ भऽ गेलै। तहूमे दूटा ओहन जिनगी जे दुनियाँमे अखन पएरे रखलक अछि। चुपचाप कामिनी अपन रहैबला कोठरी आबि दुनू बेटीकेँ एक टक देखि,  छह बर्खक रीताकेँ पएरे आ तीन बर्खक सीताकेँ कोरामे नेने घरसँ निकलि गेल। मनमे आगि लगल, तेँ कोनो सुधि-बुधि नहि।
स्टेशन आबि कामिनी ट्रेन-गाड़ीक पता लगौलक। चारि घंटाक बाद गाड़ी। दुनू बच्चाक संग ओ प्लेटफार्मपर  गाड़ीक प्रतीक्षामे बैसि रहलि। मनमे अनेको रंगक प्रश्न उठै लगलैक। मुदा सभ प्रश्नकेँ मनसँ हटबैत एहि प्रश्नपर अॅटकल जे, जे माए-बाप जन्म देलक ओ जरुर गरा लगौत। जँ नहि लगौत तँ बड़ी टा दुनियाँ छैक,  बुझल जेतैक। तेँ सभसँ पहिने माए-बाप लग जाएब। डेढ़ बजे रातिमे गाड़ी पकड़ि,  दुनू बच्चाक संग भोरमे अपना नैहरक स्टेशन उतड़ल। भुखे तीनू लहालोट होइत। मुदा ऐठामक नारीमे तँ सभसँ पैघ ई गुण होइत जे धरती जेकाँ सभ दुखकेँ सहि लैत। मुदा दुनू बेटीक मुँह देखि चिन्ताक समुद्रमे डूबए लगल। की ककरोसँ भीख मांगि बच्चाकेँ खुआबी? कथमपि नहि। की बच्चाक जिनगीकेँ एतै अन्त हुअए दिऐ? अपन साध कोन। मुदा नाना ऐठाम तक पहुँचत कोना? जी जाँति कऽ एकटा मुरही-कचड़ीक दोकानपर कामिनी पहुँचि मुरही बेचइवाली बुढ़ियाकेँ कहलक- ‘दीदी, हमर नैहर दुखपुर छी। ओतै जाइ छी। दुनू बच्चा रातिमे खेलक नहि, तेँ भुखे लहालोट होइए। दू रुपैआक मुरही-कचड़ी उधार दिअ। काल्हि पाइ दऽ देब।’ बिना किछु सोचनहि-विचारने बुढ़िया बाजलि- ‘बुच्ची, तोरा पाइ नञि छह, तेँ की हेतै। हमरो एहेन-एहेन चारि गो पोता-पोती अछि। हम बच्चाक भुख बुझै छिऐ।’ कहि दुनू बच्चाकेँ मुरही-कचड़ी देलक। तीनू खा कऽ विदा भेलि।
  कामिनीक नैहर पहुँचैत-पहुँचैत सूर्य एक बाँस उपर चढ़ि गेल। दुखपुरक दछिनवरिया सीमापर एकटा पाखरिक गाछ। पाखरिक गाछसँ आगू बढ़ैक साहसे ने कामिनीकेँ होए। गाछक निच्चाँमे बैसि ठोह फाड़ि कानए लगल। दुखपुरक सइओ ढ़ेरबा बचिया घास छिलैत बाधमे। कामिनीक कानब सुनि सभ पथिया-खुरपी नेनहि पहुँच गेलि। दुनू बच्चाकेँ दू गोटे कोरामे लऽ कामिनीकेँ संग केने घरपर आइलि।






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