Friday, January 16, 2009

डाक्टर हेमन्त - जगदीश प्रसाद मण्डल



सभ दिन चारि बजे उठैबला डाॅक्टर हेमन्त आइ छअ बजे उठल। अबेरे कऽ नीन टुटलनि। एना किअए भेलनि? एना अइ दुआरे भेलनि जे आन दिन परिवारसँ लऽ कऽ अस्पताल धरिक चिन्ता दबने रहैत छलनि। तेँ कहियो भरि-भरि राति जगले रहि जाथि तँ कहियो-कहियो लगले-लगले निन्न टुटि जाइन। कोनो-कोनो राति अनहोनी-अनहोनी सपना देखि चहा-चहा कऽ उठैत तँ कोनो-कोनो राति पत्नीसँ झगड़ैत रहि जाइत। छअ बजे नीन टुटिते हेमन्त घड़ी देखलनि। मुदा अबेरो कऽ निन्न टुटने मनमे एक्को मिसिया चिन्ता नहि। मन हल्लुक, एकदम फुहराम। जना मनमे चिन्ताक दरस नहि। आन दिन ओछाइनेपर ढ़ेरो चिन्ता घेरि लेनि। अनेको समस्या, अनेको उलझन मनकेँ गछारि देनि। केसक की हाल अछि, बेटाकेँ नोकरी हएत की नहि। क्लीनिकमे कप्पाउण्डरक चलैत रोगी पतरा रहल अछि। चोट्टा सभ दारु पीबि-पीबि अन्ट-सन्ट करैत रहैत अछि आ पाइयेक भँाजमे पड़ल रहैत अछि। जाहिसँ मुँह-दुबर रोगी सबहक कुभेला होइ छै। अस्पतालोसँ बेर-बेर सूचना भेटैत अछि जे ड्यूटीमे लापरवाही करै छिऐ। बातो सत्य छै मुदा की करब? केस छोड़ि देब तँ पिताक अरजल सम्पत्ति बहि जाएत। क्लीनिकमे कम्पाउण्डर सभकेँ जँ किछु कहबै तँ क्लीनिके बन्न भऽ जाएत। जइसँ जेहो आमदनी अछि सेहो चलि जाएत। पुरान कम्पाउण्डर सभ अछि। सभ दिन छोट भाए जेकाँ मानैत एलिऐ तेकरा किछु कहबै सेहो उचित नहि। मुदा हमही टा तँ डाॅक्टर नहि छी, बहुतो छथि। रोगीकेँ की, जैठाम नीक सुविधा हेतइ तइ ठाम जाएत। ओझड़ाएल जिनगी हेमन्तक। तेँ सोझ-साझ बिचार मनमे अबिते नहि। मुदा आइ अबेर कऽ उठनहुँ मनमे कोनो ओझरी नहि। किएक तँ काल्हिये कोर्टमे लिखि कऽ दऽ देलखिन जे हमरा पिताक सम्पतिसँ कोनो मतलब नहि अछि, तेँ केससँ अलग कएल जाए। दोसर बेटोकेँ नोकरी भऽ गेलनि जे ज्वाइन करै काल्हिये माए आ स्त्रीक संग गेल। पिताक देल सम्पतिक लड़ाइमे अपनो बीस बर्खक कमाइ गेल रहनि। मुदा प्राप्तिक नामपर जान बचा लड़ाइसँ अलग भेलाह। हेमन्तक मनमे उठलनि जे जहिना पिताक सम्पतिमे किछु नहि प्राप्त भेल तहिना तँ रमेशोकेँ हमरा अरजल सम्पतिमे नहि हेतै। मुदा हमरा आ रमेशमे अन्तर अछि। हम तीन भाइ छी, जहिक बीच विवाद भेल मुदा रमेश तँ असकरे अछि। ओना हेमन्तक मनक चिन्ता काल्हिये समाप्त भऽ गेल रहनि मुदा काजक व्यस्तता मनकेँ असथिर हुअए नहि देलकनि। एक्के बेर आठ बजे रातिमे असथिर भेलाह। तेकर बाद पर-पखाना करैत, हाथ-पाएर धोइत, खाइत नअ बजि गेलनि। भरि दिनक झमारल तेँ ओछाइनपर पहुँचते नीन अबए लगलनि। रेडियो खोलि समाचार सुनए चाहलनि, सेहो नहि भेलनि। रेडियो बजिते अपने सुति रहलाह।
नीन टुटिते डाॅक्टर हेमन्तकेँ चाहक तृष्णा एलनि। मुदा घरमे कियो नहि। असकरे। नोकर अइ दुआरे नहि रखने जे काल्हि धरि पत्नी, बेटा-पुतोहू सभ रहनि। जे सभ घरक काज सम्हारैत। ओना चाहक सभ समचा घरेमे मुदा बनौनिहारे नहि। बिछान परसँ उठि नित्य-कर्म केलनि। मनमे एलनि जे चाह पीब। मुदा चाह आओत कतऽ सँ। से नञि तँ पहिने दाढ़िये बना लै छी आ क्लीनिक जाए लगब तँ रस्तेमे चाह पीबि लेब। मुदा भोरे-भोर चाहक दोकानपर तँ ओ जाइत, जकरा घर-परिवार नञि रहै छै। हमरा तँ सभ कुछ अछि। ओह, से नञि तँ अपने चाह बना लेब। चाह बना, कुरसीपर बैसि चाह पीबए लगलाह। फाटक परसँ आवाज आएल- ‘डाॅक्टर सहाएब, डाॅक्टर सहाएब।’
टेबुलपर कप रखि, फाटक दिशि बढ़ैत डाॅ. हेमन्त कहलखिन- ‘हँ, अबै छी।’
फाटकक बाहर डाकिया कन्हामे झोरा लटकौने हाथमे दूटा लिफाफ आ रसीद नेने ठाढ़। डाकियाकेँ देखि मुस्की दैत हेमन्त पुछलखिन- ‘भोरे-भोर कोन शुभ-सन्देश अनलहुँहेँ?’
मुदा डाकिया किछु बाजल नहि। खाँखी शर्टक उपरका जेबीसँ पेन निकालि, रसीदो आ पेनो बढ़ा देलकनि। दुनू रसीदपर हस्ताक्षर कऽ दुनू लिफाफ नेने फेर कुरसीपर बैसि चाहक चुस्की लेलक। एकटा लिफाफकेँ टेबुलपर रखि, दोसरकेँ खोलि पढ़ए लगलाह। सरकारी पत्रमे लिखल- ‘पत्र देखितहि डेरा छोड़ि दिअ। बाढ़िसँ बहुत अधिक जान-मालक नोकसान भेल अछि, तेँ आइये लछमीपुर पहुँच जएबाक अछि। तहिमे जँ कोनो तरहक आनाकानी करब तँ पुलिसक हाथे पठाओल जाएब। एक काॅपी पुलिसोक थानामे भेज देल गेल अछि।’
पत्र पढ़ितहि हेमन्तकेँ ठकमूड़ी लगि गेलनि। मने-मन सोचए लगलाह जे घरमे असकरे छी। कोना छोड़ि कऽ जाएब। समए-साल तेहेन भऽ गेल अछि जे दिनो-देखार डकैती होइत अछि। कतौ डकैती तँ कतौ चोइर, कतौ अपहरण तँ कतौ हत्या सदिखन होइते रहैए। एहना स्थितिमे घर छोड़ब उचित हएत। मुदा जखन नोकरी करै छी तँ आदेश मानै पड़त। जँ से नहि मानब तँ जहिना बीस बर्खक कमाइ कोट-कचहरीक ईंटा गनैमे गेल तहिना जे पाँच बरख नोकरी बचल अछि ओहो ससपेंड, डिस्चार्जमे जाएत। कहियो जिनगीमे चैन नहि। घोर-घोर मन होइत जाइत। चाहो सरा कऽ  पाि‍न भऽ गेल। गुन-धुन करैत दोसर पत्र खोललनि। पत्रमे लिखल- ‘डाॅक्टर हेमन्त। काल्हि चारि बजे, पछबरिया पोखरिक पछबरिया महारमे जे पीपरक गाछ अछि, ओहि गाछ लग पहुँचि हमरा आदमीकेँ दू लाख रुपैया दऽ देबै। नञि तँ परसू एहि दुनियाकेँ नहि देखि सकब।’
पत्र पढ़िते केराक भालरि जेकाँ हेमन्तक करेज डोलए लगलनि। सौँसे देहसँ पसीना निकलै लगलनि। थरथराइत हाथसँ पत्र खसि पड़लनि। मनक बिचार विवेक दिशि बढ़ए लगलनि। जहिना कियो सघन बनमे पहुँचि जाइत आ एक दिशि बाघ-सिंहक गर्जन सुनैत तँ दोसर दिशि सुरुजक रोशनी कम भेने अन्हार बढ़ैत जाइत, तहिना हेमन्तकेँ हुअए लगलनि। खाली मन छटपटा गेलनि। की करब, की नै करब, बुझबे ने करथि। जहिना भोथहा कोदारिसँ सक्कत माटि नहि खुनाइत तहिना हेमन्तोक विचार समस्याकेँ समाधान नहि कऽ पबैत। रस्तेमे विलीन भऽ जाइत। कियो दोसर नहि! जे मनक बात सुनैत, जाहिसँ मन हल्लुक होइतनि। तहि काल एकटा अस्पतालक कम्पाउण्डर रिक्शासँ आबि गेटपर पहुँचि बाजल- ‘डाॅक्टर सहाएब....।
कम्पाउण्डरक अवाज सुनि धरफड़ा कऽ उठि हेमन्त गेट दिशि बढ़लाह। गेटपर रिक्शा लागल। रिक्शापर दूटा कार्टून लादल। कम्पाउण्डरो आ रिक्शोबला रिक्शासँ हटि, बीड़ी पिबैत। डाॅक्टर हेमन्तपर नजरि पड़ितहि कम्पाउण्डर हाथक बीड़ी फेकि, आगू बढ़ि प्रणाम करैत कहलकनि- ‘लगले तैयार भऽ चलू, नञि तँ पुलिस आबि कऽ बेइज्जत करत। बेइज्जत तँ हमरो करैत मुदा पुलिस अबैसँ पहिने हम कार्टून रिक्शापर चढ़बैत रही। तेँ किछु ने कहलक। रस्तामे अबै छलौं तँ मोहनबाबूकेँ गरिअबैत सुनलियनि। तेँ देरी नञि करु। नबे बजे गाड़ी अछि। सवा आठ बजैए। अपना दुनू गोटे एक टीममे छी।’
जहिना जूड़िशीतलमे मुइलो नढ़ियापर लाठी पटकैत तहिना कम्पाउण्डरक बात सुनि हेमन्तकेँ होइन। मिरमिराइत स्वरमे बजलाह- ‘दिनेश, हमरा तँ रातिये सँ तते मन खराब अछि जे किछु नीके ने लगैए। एक्को मिसिया देहमे लज्जतिये ने अछि। होइए जे तिलमिला कऽ खसि पड़ब।’
  कम्पाउण्डर- ‘दवाइ खा लिअ। थोड़बे कालमे ठीक भऽ जाएब।’
  हेमन्त- ‘देहक दुख रहैत तखन ने, मनक दुख अछि। ओ कोना दवाइसँ छुटत।’
  हेमन्तक मन आगू-पाछू करैत देखि कम्पाउण्डर कहलकनि- ‘एक तँ ओहिना मन खराब अछि......।’
  कम्पाउण्डरक बात सुनि हेमन्तक मन आरो मौला गेलनि। मनमे अनेको प्रश्न उठए लगलनि। देरी हएत तँ जबाबो देमए पड़त। मुदा घरो छोड़ब तँ नीक नहि हएत। जखने घर छोड़ब तखने उचक्का सभ सभटा लुटि-ढ़गेरि कऽ लऽ जाएत। अपने नै रहने क्लीनिको नहिये चलत। अखन जँ रमेशोकेँ अबैले कहबै, सेहो कोना हएत? काल्हिये तँ ओहो ज्वाइन केलकहेँ। अगर जँ ओकरा माइयेकेँ अबैले कहबनि तँ ओहो जपाले। किएक तँ रोज देखै छिऐ अपहरणक घटना। हड़बड़बैत कम्पाउण्डर कहलकनि- ‘अहाँ दुआरे हमहूँ नै मारि खाएब। हम जाइ छी।’
  अधमड़ू भेल हेमन्त- ‘दू मिनट रुकह। कपड़ा बदलै छी।’
हाँइ-हाँइ कऽ हेमन्त कपड़ा बदलि, बैगमे लुंगी, गमछा, शर्ट, पेन्ट, गंजी रखि बिदा भेलाह। रिक्शापर चढ़िते रहथि आकि पुलिसक गाड़ी पहुँच गेल। तते हड़बड़ा कऽ बिदा भेल रहथि जे मोबाइल, घड़ी, दाढ़ी बनबैक वस्तु छुटिये गेलनि। पुलिसक गाड़ी देखि जे हड़बड़ा कऽ रिक्शापर चढ़ैत रहथि आकि चश्मा गिरि पड़लनि। जेकर एकटा शीशो आ फ्रेमो टूटि गेलनि। पुलिसक गाड़ीकेँ घुमैत देखि मनमे शान्ति एलनि। रिक्शापर चढ़ि थोड़े आगू बढ़ला आकि डाॅक्टर सुनीलकेँ बच्चा सबहक संग बजारसँ डेरा जाइत देखलखिन। सुनील बाबूकेँ देखि कम्पाउण्डरसँ पुछलखिन- ‘सुनीलबाबू सभकेँ ड्यूटी नहि भेटिलनि अछि, की?’
कने काल चुप रहि कम्पाउण्डर कहलकनि- ‘नीक-नहाँति तँ नञि बुझल अछि मुदा बुझि पड़ैए जे, जे सभ अस्पतालमे बेसी समए दइ छथिन हुनका सभकेँ छोड़ि देल गेलनि अछि।’
कम्पाउण्डरक बात सुनि डाॅ. हेमन्तकेँ अपनापर ग्लानि भेलनि। मन पड़लनि सुनील बाबूक परिवार आ जिनगी। सुनील बाबू सेहो डाॅक्टर। दू भाँइक भैयारी। पितो जीविते। चारि बहीन। जे सभ सासुर बसैत। बहीन सबहक सासुर देहातेमे। जइ ठाम पढ़ै-लिखैक नीक बेबस्था नहि। ओना अपनो सुनीलबाबू गामेमे रहि पढ़ने रहथि। डाॅक्टरी पास केलापर गाम छोड़लनि। भाँइयो दरभंगेक हाइ स्कूलमे शिक्षक। परिवारो नमहर। किएक तँ माए-बापक संग दुनू भाइक पत्नी आ बच्चा। तइ परसँ चारु बहीनिक पढ़ै-लिखैबला बच्चा सभ। सुनीलबाबूक जिनगी आन डाॅक्टरसँ भिन्न। मात्र दू घंटा अपन क्लीनिक चलबैत। आठ घंटा समए अस्पतालमे दैथि। अपना क्लीनिकमे चारिटा कम्पाउण्डर आ जाँच करैक सभ यंत्र रखने। जाँच करैक पाइमे सभ कम्पाउण्डरकेँ परसेनटेज दैथि। जाहिसँ काजो अधिक होइत। कम्पाउण्डरोकेँ नीक कमाइ भऽ जाइत तेँ इमानदारीसँ श्रम करैत। ओना सभ काज कम्पाउण्डरे कऽ लैत मुदा हिसाब-बाड़ी आ जाँचक चेक अपनेसँ करैत। जाहिसँ अस्पतालोक जाँच करौनिहार दोहरा कऽ अबैत। आ आन-आन प्राइवेट खानगी जाँच घरक काज सेहो पतराएल। ततबे नहि डाॅ. सुनीलक चरचा सीतामढ़ी, दरभंगा, सुपौल आ समस्तीपुर जिलाक गाम-गामक लोकक बीच होइत। जहिना धारक पानि शान्त आ अनबरत चलैत रहैत, तहिना सुनीलक परिवार। कोनो तरहक हड़-हड़ खट-खट परिवारमे कहियो नै होइत। डाॅक्टर सुनीलक परिवारक संबंधमे सोचैत-सोचैत डाॅक्टर हेमन्त अपनो परिवारक संबंधमे सोचए लगलाह। मन पड़लनि पिता। जे बंगालसँ डाॅक्टरी पढ़ि गामेमे प्रैक्टीश शुरु केलनि। किएक तँ सरकारी अस्पताल गनल-गूथल। मुदा रोगीक कमी नहि। कमी इलाज आ इलाज कर्ताक। नमहर इलाका। दोसर डाॅक्टर नहि। गाम-घरमे ओझा-गुनी, झाँड़-फूँक, जड़ी-बुट्टीसँ इलाज चलैत। ओना हेमन्तक पिता डाॅक्टर दयाकान्त सभ रोगक जानकार, मुदा तीनिये तरहक रोगक टूटल हाथ-पाएरक पलस्तर, साँपक बीख उताड़ब आ बतहपन्नीक इलाजसँ पलखति नहि। तेँ ओझो-गुनीक चलती पूर्ववते। कमाइयो नीक। जाहिसँ दू महला मकानो आ पचास बीघा खेतो किनलनि। तीनू बेटोकेँ खूब पढ़ौलनि। जेठका वकील, मझिला डाॅक्टर आ छोटका प्रोफेसर। जाधरि दयाकान्त जीबैत रहलखिन ताधरि गामो आ इलक्कोमे सुसभ्य आ पढ़ल लिखल परिबारमे गिनती होइन। तीनू भाँइयोक बीच अगाध स्नेह। जेठ-छोटक विचार सबहक मनमे। जाहिसँ माइयो-बाप खुशी। ओना माए पढ़ल-लिखल नहि मुदा परम्परासँ सभ बुझैत। जखैनकि पिता आधुनिक शिक्षा पाबि आधुनिक नजरिसँ सोचैत। तीनू भाँइक मेहनति देखि पिताकेँ ई खुशी होइत जे परिवारक गाड़ी आगू मुँहे नीक जेकाँ ससरत। बेटा सबहक बिआह इलाकाक नीक-नीक परिवारमे पढ़ल-लिखल लड़कीक संग केलनि। दहेजो नीक भेटलनि।
दयाकान्त मरि गेलखिन मुदा स्त्री जीविते। तीनू भाँइ अपन-अपन जिनगीमे ओझराएल। अपन-अपन परिवारक संग रहैत, घरपर खाली  माइये टा। तीनू भाँइक परिवारक गारजनी स्त्रीक हाथमे। एक-दोसरसँ आगू बढ़ैक सदिखन प्रयास करैत। जाहिसँ गामक संपतिपर नजरि जाइ लगलनि। गामक सम्पति अधिकसँ अधिक हाथ लगए एहि भाँजमे बौद्धिक व्यायाम नीक-नहाँति करैत। मुकदमा बाजी शुरु भेल। एकटा कोठरी आ दू बीघा खेत माएकेँ कोटसँ भेटलनि। बाकी घरो आ खेतो जब्त भऽ गेल। एक सए चौवालीस लगि गेलै। पुलिसक ड्यूटी भऽ गेलै। बीस बर्खक बाद डाॅक्टर हेमन्त लिखि कऽ कोर्टमे दऽ देलखिन जे हमरा एहि सम्पतिसँ कोनो मतलब नहि।
दरभंगा प्लेटफार्मपर डाॅ. हेमन्त देखलनि जे दर्जनो डाॅक्टर जा रहल छी। दरजनो कम्पाउण्डरो छै। मुदा सबहक मुँह लटकल। एक्को मिसिया मुँहमे हँसी नहि। जहिना ठनका ठनकलापर सभ अपने-अपने माथपर हाथ रखि साहोर-साहोर करैत तहिना बाढ़िक इलाकाक ड्यूटीसँ सबहक मनपर भारी बोझ, जाहिसँ सभ मने-मन कबुला-पाती करैत। हे भगबान, हे भगवान करैत। कियो-ककरो टोकथि नहि। आँखि उठा कऽ देखि फेर निच्चा कऽ लेथि।
निरमली जाइवाली गाड़ी पहुँचल। गाड़ी पहुँचिते सभ हड़बड़ करैत, अपनो आ समानो सभ उठा-उठा गाड़ीमे चढ़ौलनि। हेमन्तो चढ़लाह। कम्पाउण्डरकेँ बीड़ीक तृष्णा लगलै। ओ दुनू कार्टून समान चढ़ा उतरि कऽ  पानक दोकान दिशि बढ़ल। तहि काल पनरह-बीसटा तरकारीबाली आबि, डिब्बामे कियो छिट्टा चढ़बैत तँ कियो मोटा। तेसर यात्री सभ, तरकारीवालीक काँइ-कच्चर सुनि-सुनि आगू बढ़ि जाइत। कम्पाउण्डरो हाँइ-हाँइ कऽ चारि दम बीड़ी पीबि, दौगल आबि बोगीक आगूमे ठाढ़ भऽ गेल। तरकारीवाली सबहक झुण्ड देखि कम्पाउण्डरकेँ मनमे हुअए लगलै जे हमरा चढ़िये ने हएत। चुपचाप निच्चाँमे ठाढ़। गाड़ीक भीतर बैसल एकटा पसिन्जर उठि कऽ आबि एकटा मोटाकेँ निच्चाँ धकेल देलक। जइ तरकारीवालीक मोटा खसल रहै ओ ओहि आदमीक  गट्टा पकड़ि निच्चा उतारल। निच्चा उतरितहि घोरन जेकाँ सभ तरकारीवाली लुधकि गेल। गारियो खूब पढ़लक आ मारबो केलक। बोगीक मुँह खाली देखि कम्पाउण्डर चढ़ि गेल। गाड़ीकेँ पुक्की दैतहि सभ हाँइ-हाँइ कऽ चढ़ए लगल मुदा झगड़ा नै छुटलै। गारि-गरौबलि होइते रहल। जते हल्ला सैाँसे गाड़ीमे, लोकक बजलासँ होइ ओते खाली ओहि एक्के डिब्बामे होइ। अकछि कऽ डाॅक्टर हेमन्त सीट परसँ उठि समान रखैबला उपरकापर जा कऽ बैगकेँ  सिरमामे रखि सुति रहलाह। ओंघराइते अपना जिनगीपर नजरि गेलनि। मने-मन सोचै लगलाह जे पिताजी तँ हमरे सबहक सुखले ने ओते सम्पति अरजलनि। मुदा की हमरा सभकेँ ओहि सम्पतिसँ सुख होइ अए ? अपनो कमाइ तँ कम नहि अछि। मुदा चौबीस घंटाक दिन-रातिमे चैनसँ कते समए बीतैत अछि ? जहिना खाइ काल फोन अबै अए तहिना सुतै काल। की यएह छी सुखसँ जिनगी बिताएब ? मुदा एहि प्रश्नक उत्तर सोचमे ऐबे ने करनि। फेर मन उनटि कऽ  जिनगीक पाछु मुँहे घुरलनि। मनमे एलनि जे, जे माए धाकड़ सन-सन तीन बेटाक छी, बेचारीकेँ कियो एक लोटा पानि देनिहार नहि। किएक नहि बेचारीक मनमे उठैत हेतनि जे एहि बेटासँ बिनु बेटे नीक ? हमरो ऐना नै हएत, तेकर कोन गारंटी।
गाड़ी घोघरडिहा पहुँचल। यात्री सभ उतड़बो करए आ बजबो करए जे किसनीपट्टीसँ आगू लाइन डूबि गेल छै, तेँ गाड़ी आगू नै बढ़त। कम्पाउण्डर उठि कऽ  हेमन्तक पाएर डोलबैत बाजल- ‘डाॅक्टर सहाएब, नीन छिऐ।’
  ‘नै’
  ‘सभ उतरि रहल अछि। गाड़ी आगू निरमली नञि बढ़त। उतरि जाउ?’
कम्पाउण्डरक बात सुनि हेमन्तक मनमे अस्सी मन पानि पड़ि गेलनि। मुदा उपाए की? अधमड़ू जेकाँ उतरलथि। प्लेटफार्मपर रिक्शाबला, टमटमबला हल्ला करैत जे कोसीक पछबरिया बान्हपर जाएब।’
एकटा रिक्शाबलाकेँ हाथक इशारासँ कम्पाउण्डर सोर पाड़ि पूछलक- ‘हम सभ लछमीपुर जाएब। तोरा बुझल छह?’
  रिक्शाबला- ‘हमरो घर लछमियेपुर छी। बाढ़िक दुआरे ऐठाम रिक्शा चलबै छी।’
  कम्पाउण्डर- ‘अइ ठीनसँ कना-कना रस्ता हेतै? ’
  रिक्शाबला- ‘अइ ठीनसँ हम बान्हपर दऽ आएब। ओइ ठीनसँ नौ भेटत, जे लछमीपुर पहुँचा देत। अइ ठीनसँ हम नेने जाएब आ अपने भाइयक नौपर चढ़ा देब।’
  कम्पाउण्डर- ‘बड़बढ़िया, कार्टून चढ़ाबह।’
सभ कियो रिक्शापर चढ़ि बिदा भेल। पुबरिया गुमती लग, जहिठाम चाउरक बड़का मिलक खंडहर अछि, पहुँचि रिक्शावलाकेँ हेमन्त पुछलखिन- ‘लछमीपुर केहेन गाम अछि?’
  रिक्शाबला- ‘बड़ सुन्दर गाम अछि। सन्मुख कोसीसँ मील भरि पछिमे अछि। गामक सभ मेहनती। बाढ़िक समएमे हम सभ रिक्शा चलबै छी आ जखैन पाइन सटकि जाइ छै तखैन जा कऽ खेती करै छी। गाइयो-महीस पोसने छी। कते गोरे नौ चलबैए आ कते गोरे मछबारि करैए। हमरा गामक लोक पंजाब, डिल्ली नञि जाइए। आन-आन गाममे तँ पंजाब, डिल्लीक धरोहि लागि जाइ छै। से हमरा गाममे नञिए। माछक नाम सुनिते कम्पाउण्डर पुछलक- ‘तब तँ माछ खूब सस्ता हेतह?’
  ‘हँ, कोनो की जीरा रहै छै। सभ अनेरुआ। एहेन सुअदगर माछ शहर-बजारमे थोड़े भेटत। शहर-बजारक माछ तँ सड़ल-सुड़ल पानिक डबरा महक रहैए।’
कोसीक पछबरिया बान्हपर पहुँचते रिक्शाबला अपन भाइयक घाटपर रिक्शा लऽ गेल। भाइयक रिक्शा देखितहि भागेसर नाव परसँ बान्हपर आएल। दुनू भाँइ दुनू कार्टून नावपर रखलक। अधा नावपर तख्ता बिछौने आ अधा ओहिना। तख्तापर पटेरक पटिया बिछाओल। नावपर बैसि हेमन्त पूब मुँहे तकलनि तँ बुझि पड़लनि जे समुद्रमे जा रहल छी। सौंसे देह सर्द भऽ गेलनि। मनमे डर पैसि गेलनि जे कोना अइ पाइनमे जाएब। मन पड़लनि दरभंगाक पीच परक कार। मुदा एक्सिडेंट तँ ओतौ होइ छै। ओतौ लोक मरैत अछि। फेर मनमे एलनि जे महेन्द्रूक नाव जेकाँ नावमे इंजनो नै छै। जँ कहीं बीचमे लग्गी छुटि-टुटि जेतै तँ भसिये जाएब। कतऽ जाएब कतऽ नहि। अनायास मनमे एलनि जे अखन धरि कम्पाउण्डरकेँ नोकर जेकाँ बुझै छेलिऐ ओ उचित नहि। ई तँ छोट भाइक तुल्य अछि। नव विचार मनमे उठितहि कम्पाउण्डरकेँ कहलखिन- ‘बौआ, धन्य अछि ऐठामक लोक। जे सचमुच देवीक पूजो करैत अछि आ लड़बो करैत अछि। किएक ने जिबठगर हएत।’
नौ खुगलै, मांगि सोझ कऽ नञिया –नाविक कमलेसरीक गीत उठौलक। नञियाक लग्गी उठबैत आ पाइनमे रखैत देखि हेमन्त मने-मन सोचए लगलाह जे एहन मेहनति केनिहारकेँ कोन जरुरत दवाइ आ व्यायामक छैक। मन पड़लनि रामेश्वरम। समुद्रक झलकैत पानि। जहिमे लहरि सेहो उठैत। तहिना तँ ओहूठाम पानिक लहरि अछि। फेर मन पड़लनि जेसलमेरक बाउल। एहिना उज्जर धप-धप कतौसँ कतौ बाउल। कमलेसरीक गीत समाप्त होइतहि नाविक कोसीक गीत उठौलक। अजीब साजो। जहिना नावमे खट-खटक अवाज तहिना लग्गीक। लग्गीक पानि‍ देहोपर खसै मुदा तेँ की ओकर पसीना निकलब रुकलै।
डाॅ. हेमन्तक मन फेर उनटलनि। मिलबै लगलाह समुद्रक लहरि आ कोसीक धाराक। समुद्र रुपी समाजमे सेहो समुद्र जेकाँ लहरियो उठैत अछि आ धारक बेग जेकाँ सेहो रहैत अछि। कहियो काल समुद्रक लहरि जेकाँ सेहो लहरि समाजमे उठैत अछि मुदा ओ धीरे-धीरे असथिर भऽ जाइत अछि। मुदा कोसीक धार जेकाँ जे बेग चलैत ओ पैघसँ पैघ पहाड़केँ तोड़ि धारो बना दैत आ समतल खेतो। पुरानसँ पुरान गामक अधला परम्पराकेँ तोड़ि नवमे बदलि दैत। जहिना मौसम बदललापर गाछक पुरान पात झड़ि नव पातसँ पुनः लदि जाइत, तहिना। असीम विचारमे डूबल हेमन्तक मुँह अनायास नाविककेँ पुछलक- ‘कते दूर अहाँक गाम अछि?’
  नञिया- ‘छअ कोस।’
  ‘कते समए जाइमे लागत ?’
  ‘भट्ठा दिस जाएब। तेँ जलदिये पहुँच जएब।’
जल्दीक नाम सुनि हेमन्तक मनमे आशा जगल। मुदा ओ आशा लगलेमे जाए लगलनि। किएक तँ सैाँसे पाइनिये देखथि, गाम-घरक कतौ पता नहि। चिन्तित भऽ चुपचाप भऽ गेलाह। अपना सुइढ़मे नञिया गीत गबैत। मनमे कोनो विकारे नहि। मुदा हेमन्तकेँ कखनो गीत नीको लगनि आ कखनो झड़कबाहियो उठनि। तहि काल एकटा मुरदा भसल जाइत। सबहक नजरि ओहि मुरदापर पड़ल। मुरदा देखि हेमन्तक नजरि अस्पतालक मुरदापर गेलनि। मुदा दुनूक दू कारण। एकक जिनगीक अंत रोगसँ तँ दोसराक बाढ़िसँ। नब-नब समस्या उठि-उठि हेमन्तक मनकेँ घोर-मट्ठा कऽ देलकनि। मनक सभ विचार हराइ लगलनि। तहि बीच एकटा किलो चारिएक रौह माछ कुदि कऽ नावमे खसल। माछ देखि हेमन्तोक आ कम्पाउण्डरोक मन चट-पट करए लगलनि। लग्गीकेँ मांगिपर राखि भागेसर माछकेँ पकड़ि, पानि उपछैबला टीनमे रखलक। माछकेँ टीनमे रखि नञिया बाजल- ‘अहाँ सबहक जतरा बनि गेल।’
नञियाक शुभ बात सुनि हेमन्तक मन फेर ओझरा गेलनि। मनमे उठए लगलनि जे यात्रा ककरा कहबै। घरसँ बिदा भेलहुँ, तकरा कहियै आकि कार्यस्थल तक पहुँचैकेँ कहियै आकि काज सम्पन्न कऽ घर पहुँचलापर, तकरा। तहूसँ आगू जे काजक बीचोमे नव काज उत्पन्न भऽ जाइत। फेर नञियाकेँ पुछलखिन- ‘आब कते दूर अछि?’
हाथ उठा आंगुरसँ दछिन दिस देखबैत कहलकनि- ‘वएह हमर गाम छी। गोटे-गोटे जमुनीक गाछ देखै छिऐ। अधा कोस करीब हएत।’
अधा कोस सुनि कम्पाउण्डर चहकि कऽ बाजल- ‘डाॅक्टर सहाएब, पाँच बजैए। अधा घंटा आरो लागत। साढ़े पाँच बजे तक पहुँचि जाएब।’
भने सबेरे-सकाल पहुँचि जाएब। मुदा अकासमे चिड़ै सभ नहि उड़ैत। किएक तँ चिड़ै ओहि ठाम उड़ैत जहि ठाम रहैक ठौर होइत। मुदा से तँ नहि। सौँसे बाढ़िये पसरल। मुदा तैयो गोटे-गोटे मछखौका चिड़ै जरुर उड़ैत। लछमीपुर दिशि अबैत नावकेँ देखि गामक धियो-पूतो, स्त्रीगणो आ गोटे-गोटे पुरुखो घाटपर ठाढ़ भऽ एक दोसरसँ कहैत।
  ‘चाउर-आँटाबला छिऐ।’
  ‘नुओ-बसतर हेतै।’
  ‘तिरपालो हेतै।’
  ‘बड़का हाकीम सभ छिऐ।’
घाटपर आबि नाव रुकल। मुदा पेंट-शर्ट पहिरने डाॅक्टर आ कम्पाउण्डरकेँ देखि जनिजाति सभ मुँह झापए लागलि। मरद सभ सहमि गेल। घीया-पूता डरा गेल। नावकेँ बान्हि नञिया सुलोचनाकेँ कहलक- ‘गै सुलोचना डाकडर सैब सभ छथिन। बक्सामे दवाइ छिऐ। हम दवाइ उताड़ै छी तूँ टीन उतार। टीनमे एकटा नमहर माछ छौ। खूब नीक जेकाँ माछकेँ तरि डाकडर सहैबकेँ खुआ दहुन।’
माछ उतारि सुलोचना अंगना लऽ गेल। टीन रखि बाड़ीक कलपर आबि हाथ धोए, आँचरसँ हाथ पोछि, इसकूलक ओछाइन झाड़ि बिछबै लागलि। बिछान बिछा, दौड़ि कऽ आंगनसँ बड़का जाजीम आ दूटा सिरमा आनि लगौलक। हेमन्तो आ दिनेशो आगूमे ठाढ़। मुदा ओते लोकक बीच हेमन्तोक आ दिनेशोक नजरि सुलोचनेक देह आ काजपर नचैत। बिछान बिछा सुलोचना हेमन्तकेँ कहलकनि- ‘डाॅक्टर सहाएब, बिछान बिछा देलहुँ, आब आराम करु।’
दिनेश चुप्पे। मुदा हेमन्त बजलाह- ‘बुच्ची, देह भारी लगैए। ओना नावपर आरामेसँ एलहुँ। मुदा तैयो देह भरिआएल लगैए। पहिने नहाएब।’
‘बड़बढ़िया’ कहि सुलोचना आंगन बाल्टी-लोटा अानए गेलि। आंगनसँ बाल्टी-लोटा नेने कलपर पहुँचल। दुनूकेँ माटिसँ माँजि, बाल्टीमे लोटा रखि, पाइन भरि, हेमन्तकेँ कहलक- ‘डाॅक्टर सहाएब, नहा लिअ।’
चहारदेबालीसँ घेरल टंकीपर नहाइबला डाॅक्टर हेमन्त खुला धरती-अकासक बीच नहाइले जएताह। तेँ किछु सोचै-बिचारैक प्रश्न मनमे उठि गेलनि। मुदा बहुत सोचैक जरुरत नहि पड़लनि। अपना-अपना उमरबला सभकेँ डोरीबला पेंट तइ परसँ ककरो लुंगी तँ ककरो चारि हत्थी तौनी पहिरने देखलखिन। ओहो सएह केलनि। मुदा बारह बर्खक सुलोचना कल परसँ हटल नहि। मातृत्वक दुआरिपर पहुँचल सुलोचनामे फुलक टूस्सी जरुर अबि गेल छलै। मुदा हेमन्तोक मनमे डाॅक्टरक विचार। ओना डाॅक्टर हेमन्त शरीरक सभ अंगक गुण-धर्म बुझैत मुदा एहनो तँ वस्तु अछि जे गर्म हवाक रुपमे रहैत। जहिमे आनन्द आ सृजनक गुण होइत। सुलोचनोमे फूलक कोढ़ीक जे सुगंधक वाल्यावस्थामे प्रस्फुटित होइत, महमही हवामे। एक लोटा माथपर पानि ढ़ारलाक बाद हेमन्तक मनमे आएल जे अखन हम दुनियाक ओहि धरतीपर छी जहि ठाम जीवन-मरण संगे रहैत अछि। मुदा तहिठाम एहेन सौम्य, सुशील अल्हड़ बाला कते खुशीसँ चहचहा रहल अछि।
तीन साल पहिलुका बात छिऐ। जहि बाढ़िमे कतेक गाम, कतेको मनुष्य आ कतेको सम्पति नष्ट भेल छल। तेँ की? जे बचल अछि ओ ओहि गामकेँ छोड़ि देत। कथमपि नहि। मुदा बाढ़ि अनहोनी नै रहै। बरेजक फाटक खोलल गेलै। फाटको खोलैक मजबुरी रहै। किएक तँ बरेजक उत्तर तते पानिक आमदनी भऽ गेलै जे दुर्दशाक अंतिम शिखरपर पहुँच सकैत छलै। मुदा सुदूर गाममे जानकारीक साधन नहि। ने बँचैक उपए। कोसीक दुनू बान्हक बीच समुद्र जेकाँ पानि पसरि गेलै। थाहसँ अथाह धरि। कुनौलीसँ दछिन, कोसी धारक कातमे एकटा गाम। ओहि गामक सुलोचना। जेकर सभ कुछ मनुखसँ घर धरि दहा गेलै। मुदा सुलोचना जे बँचल से पढ़ैले कुनौली गेल छलि। स्कूलसँ घर जाइ काल बाढ़िक दृश्य देखलक। दृश्य देखि बान्हेपर बपहारि कटए लागलि। तहि काल लछमीपुरक चारि गोटे, बजारसँ समान खरीद नाव लग अबैत रहए। सुलोचनाकेँ कनैत देखि जीयालाल पुछलकै- ‘बुच्ची, किअए कनै छेँ?’
कनैत सुलोचना- ‘बाबा, हम पढ़ैले गेल छेलौं। तै बीच हमर गामे दहा गेल। आब हम कतऽ रहब?’
जीयालाल- -‘हमरा संगे चल। जहिना बारहटा पोता-पोतीकेँ पोसै छी तहिना तोरो पोसबौ।’
जीयालालक विचार सुनि सुलोचनाक हृदएमे जीवैक आशा जगल। कानब रुकि गेलै। मुदा कखनो-काल हिचकी होइते। नावपर सभ समान रखि चारु गोटे बान्हपर आबि चीलम पीबैक सुर-सार करए लगल। एक भागमे सुलोचनो किताब नेने बैसलि। बटुआ खोलि रघुनी चीलम, कंकड़क डिव्वा आ सलाइ निकालि बीचमे रखलक, एक गोटे चीलमक ठेकी निकालि, चीलमो आ ठेकियोकेँ साफ करए लगल। दोसर गोटे डिब्बासँ कंकड़ निकालि तरहत्थीपर औंठासँ मलए लगल। चीलम साफ भेलै। ओहिमे ठेकी दऽ कंकड़बला हाथमे देलक। कंकड़बला चीलममे कंकड़ बोझि दुनू हाथसँ चीलमक पैछला भाग पकड़ि मुहमे भिरौलक। मुँहमे भिरबितहि रघुनी सलाइ खरड़ि कंकड़मे लगबै लगल। दू-चारि बेर मुँहक इंजनसँ प्रेशर दैते चीलम सुनगि गेल। चीलमकेँ सुनगितहि तते जोरसँ दम मारलक जे धुआँक संग-संग धधरो उठि गेलै। मुदा चीलमक दुषित हवासँ धधरा मिझा गेल। बेरा-बेरी चारु चीलम पीबि मस्त भऽ नाव दिशि बिदा भेलि। साँझू पहरकेँ  जहिना गाए-महीस बाधसँ घर दिशि अबैत। जकरा पाछु-पाछु छोट-छोट नेरु पड़ड़ू झुमैत, लुदुर-लुदुर मगन भऽ चलैत, तहिना सुलोचना लछमीपुरबला सबहक संगे पाछु-पाछु नावपर पहुँचल। नावपर चढ़िते लग्गा चलौनिहार कोसी महरानीक दुहाइ देलक। सुलोचनो बाजलि- ‘जय।’
नाव खुगल। लछमीपुरक चारु गोटेक मन सुलोचनाक जिनगीपर। मुदा सुलोचनाक परिवारक बिछोह दुखसँ सुख दिशि जाए लगल। जे सुलोचना गाम आ परिवारक कतौ अता-पता नञि देखलक, ओहि सुलोचनाक मनमे उठए लगल जे गाम-घर भलेहीं दहा गेल मुदा माए-बाप जरुर जीवैत हएत। किएक तँ मनुक्ख निर्जीव नहि सजीव होइत। बुद्धि-विवेक होइत। तेँ ओ दुनू गोटे जरुर कतौ जीबैत हएत। जे आइ नै काल्हि जरुर मिलबे करत। तेँ मनमे जिनगी भरिक दुख नहि, किछु दिनक दुख अछि। जे कहुना नहि कहुना कटिये जाएत। नाव लछमीपुर पहुँचल। जीयालालक बारहोटा पोता-पोती दौड़ि कऽ नाव लग आइल। पोता-पोतीकेँ देखि जीयालाल कहलक- ‘बाउ, तोरा सभले एकटा बहीन नेने ऐलियह। सुलोचना पोता-पोती सबहक पहुन भऽ गेलि। दोसर दिन जीयालाल एकटा घर बना, सुलोचनाकेँ गामक बच्चा सभकेँ पढ़बैले कहलक। गामक बच्चा सभकेँ सुलोचना पढ़बै लागलि। वएह सुलोचना।
हेमन्तो दिनेशो नहाएल। नहाकेँ जाबे हेमन्त कपड़ा बदलि, केश सरिया, तैयार भेलाह ताबे सुलोचनो आ जीयालालक जेठकी पोती कमलियो चूड़ा भूजि, माछ तड़ि लेलक। दूटा थारीमे चूड़ाक भुजा आ तड़ल माछ साँठि दुनू बहीन दुनू थारी नेने हेमन्त लग पहुँचि आगूमे रखि देलक। बड़का फुलही थारी तइमे चूड़ाक उपरमे माछक नमहर-नमहर तड़ल कुट्टिया पसारल। थारी रखि कमली पाइन अानए गेलि। सुलोचना आगूमे बैसि गेलि। दुनू गोटे खाइत-खाइत दसो माछक कुट्टिया आ थारियो भरि चूड़ा खा लेलनि। शुद्ध आ मस्त भोजन। पानि पीबि ढ़कार करैत दिनेश बाजल- ‘डाॅक्टर सहाएब, आइ धरि हम एते नञि खेने छलौं।’
  हेमन्त- ‘से तँ हमरो बुझि पड़ैए।’
  सुलोचना- ‘डाॅक्टर सहाएब, चाहो पीबै?’
  हेमन्त- ‘पीबै तँ जरुर मुदा दू घंटाक बाद। ताबे किछु काज करब। ओना साँझ पड़ि गेल मुदा जाबे फरिच छै ताबे दसो-पाँचटा रोगी जरुर देखि लेब।’
  सुलोचना- ‘अच्छा, अहाँ तैयार होउ, हम रोगीसभकेँ बजौने अबै छी।’
कम्पाउण्डर कार्टून खोलि, दवाइ निकालि पसारि देलक। रोगी अाबए लगल। रोगी देखि-देखि हेमन्त कम्पाउण्डरकेँ कहैत जाथिन आ कम्पाउण्डर दबाइ दैत जाए। अस्पताल जेकाँ तँ सभ रंगक रोगी नहि। किएक तँ बाढ़िक इलाका तेँ गनल-गूथल रोग। दवाइयो तेहने। तीनिये दिनमे सौँसे गामक रोगीकेँ देखि डाॅक्टर हेमन्त निचेन भऽ गेलाह। मुदा सात दिनक डयूटी। तहूमे कठिन रास्ता। मुदा पाइन टूटए लगलै। पाँचम दिन जाइत-जाइत रास्ता सूखि गेल। मुदा थाल-खिचार रहबे करै।
आठम दिन भोरे हेमन्त सुलोचनाकेँ कहलखिन- ‘बुच्ची, आइ हम चलि जाएब।’
सुलोचना- ‘ई तँ मिथिला छिऐ डाॅक्टर सहाएब, बिना किछु खेने-पीने कना जाएब?’
कहि सुलोचना चाह बनबै गेलि। एकटा दोस्तसँ भेँट करए कम्पाउण्डर गेल। असकरे हेमन्त। मने-मन सोचै लगलथि जे सात दिनक समए जिनगीक सभसँ कठिन आ आनन्दक रहल। ई कहियो नै बिसरि सकै छी। बिसरैबला अछियो नहि। आइ धरि एहेन जिनगीक कल्पनो नञि केने छलहुँ, जे बीतल। एहेन मनुक्खक सेवो करैक मौका पहिल बेर भेटल। मौके नहि भेटल, बहुत किछु देखैक, भोगैक आ सीखैक सेहो भेटल। आइ धरि हम रोगीक, सचमुच जकरा जरुरत छै, सेवा नञि केने छलहुँ, खाली पाइ कमेने छलहुँ। गाम-घरमे जकरा पाइ छै वएह ने दरभंगा इलाज करबै जाइत अछि। जकरा पाइ नञि छै ओ तँ गामेमे छड़पटा कऽ मरैत अछि।
तहि बीच सुलोचना चाह नेने आइलि। कप बढ़बैत बाजलि- ‘मन बड़ खसल देखै छी, डाॅक्टर सहाएब।’
  हेमन्त- ‘नहि! कहाँ। एकटा बात मनमे आबि गेल तेँ किछु सोचै लगलहुँ।’
  सुलोचना- ‘अइ ठीन केहेन लगै अए डाॅक्टर सहाएब?’
  सुलोचनाक प्रश्नक उत्तर नहि दऽ हेमन्त चुप्प रहलाह।
  हेमन्तकेँ चुप देखि सुलोचना बाजलि- ‘हम तँ बच्चा छी डाॅक्टर सहाएब तेँ बहुत नै बुझै छी। मुदा तइयो एकटा बात कहै छी। जहिना चीनी मीठ होइत अछि आ मिरचाइ कड़ू। दुनूमे कीड़ा फड़ै छै आ ओहिमे जीवन-यापन करैत अछि। मुदा चीनीक कीड़ाकेँ जँ मिरचाइमे दऽ देल जाए तँ एको क्षण नञि जीवित रहत। उचितो भेलै। मुदा की मिरचाइक कीड़ा चीनीमे देलाक बाद जीवित रहत? एकदम नञि रहत। तहिना गाम आ बाजारक जिनगी होइत।’
सुलोचनाक बात सुनि डाॅक्टर हेमन्त मने-मन सोचए लगलथि जे बात ठीके कहलक। अहिना तँ मनुक्खोमे अछि। मुदा ओ हएत कना। जाबे समाजिक जीबनमे समरसता नञि आओत ताबे एहिना होइत रहत।
दस बजे भोजन कऽ दुनू गोटे -हेमन्त आ दिनेश- लुंगी, गंजी पहीरि सभ कपड़ो आ जूत्तोकेँ बैगमे रखि, पाएरे बिदा भेलाह। हेमन्तक बैग सुलोचना आ दिनेशक बैग कमली लऽ पाछु-पाछु चललि। किछु दूर गेलापर हेमन्त कहलखिन- ‘बुच्ची, आब तों सभ घुरि जा।’
हेमन्तक बात सुनि सुलोचनाक आँखि नोरा गेल। डाॅक्टर हेमन्तकेँ बैग पकड़बैत बाजलि- ‘अंतिम प्रणाम, डाॅक्टर सहाएब।’
एकाएक हेमन्तक हृदएसँ प्रेमक अश्रुधारा प्रवाहित हुअए लगलनि। मुँहसँ प्रणामक उत्तर नञि निकललनि। मूड़ी निच्चाँ केने आगू बढ़ि गेलाह। मुदा किछुए दूर आगू बढ़लापर बुझि पड़लनि जे चारिटा तीर -सुलोचना आ कमलीक आँखि- पाछुसँ बेधि रहल अछि। पाछु उनटिकेँ तकलनि तँ देखलखिन जे दुनू गोरे ठाढे़ अछि। मन भेलनि जे हाथक इशारासँ जाइले कहि दिअए मुदा अपना रुपपर नजरि पड़ि गेलनि। खाली पाएर जाँघ तक समटल –उलटा कऽ मोड़ल- लुंगी, देहमे सेन्डो गंजी, माथक केश फहराइत। तइ परसँ थालक छिटका घुट्ठीसँ लऽ कऽ माथ धरि पड़ल। हाथक इशारासँ सुलोचनाकेँ सोर पाड़लखिन। दुनू -सुलोचनो आ कमलियो- हँसैत आगू बढ़ल। लगमे देखि हेमन्तोक हृदएमे हँसी उपकल। मुस्की दैत हेमन्त- ‘बुच्ची, हम अपन दरभंगाक पता कहि दइ छिअह। अबिहह।’
सुलोचना- ‘हम तँ शहर-बजारमे हराइये जाएब डाॅक्टर सहाएब। अहाँ जाबे हमरा गाममे छेलौं ताबे बुझि पड़ैत छल जे दरभंगा अस्पताल गामेमे अछि।’
कहि पाएर छुबि घुरि गेल।
बान्हपर आबि दुनू गोरे थाल-कादो धोए, पेन्ट-शर्ट पहीरि स्टेशन दिशि बढ़लाह। गाड़ी पकड़ि दरभंगा पहुँचि गेलथि।

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